प्रसिद्ध प्राचिन ऐतिहासिक धार्मिक स्थली गढधनौरा को लेकर केंद्र एवं राज्य सरकार का पुरातत्व विभाग आगंतुको को कर रहा भ्रमित


(कृष्णदत्त उपाध्याय)

केशकाल । कोंडागांव जिला के अति प्राचिन पवित्र प्रसिद्ध ऐतिहासिक धार्मिक स्थली गढधनौरा गोबरहीन में केंद्र सरकार के पुरातत्व विभाग और राज्य सरकार के पुरातत्व विभाग के द्वारा आगंतुको के जानकारी हेतु लगवाये गये शिलालेख एवं बोर्ड में पृथक पृथक जानकारी अंकित करने से संशय में पड जाते हैं और उन्हे यह समझ में नहीं आता की किसे सही माने और किसे गलत मानें ।

ज्ञात हो कि केशकाल से मात्र कुछ दूरी पर गढधनौरा गोबरहीन है जंहा पर प्राचिनकाल के ईंट के विशाल टिले पर भव्य शिवलिंग है और आस पास कयी टिले है तथा दूर दूर तक प्राचिन काल के मंदिरों का भग्नावशेष बडी संख्या मे मलमा सफाई से निकला है जिसे देखने के लिये और दर्शन पूजन करने के लिये बहुत दूर दूर से लोग आते रहते हैं । यंहा पर मिले मंदिरों के पुरावशेष को देखकर उनके निर्मांण कला और इतिहास का अध्ययन करके जानकार लोग इसे पांचवी -छठवीं शताब्दी का होना बताते हैं ।

यंहा पर जिस ईंट के टिले पर भव्य शिवलिंग स्थापित है उसे भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित घोषित किया गया है वंही मलमा सफाई के बाद मिले मंदिरों के भग्नावशेष समूहों को राज्य सरकार के पुरातत्व विभाग संरक्षित किया गया है । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षंण पुरातत्वविद की तरफ से ईंट के टिले के प्रवेश द्वार के पास ही विभाग द्वारा एक शिलालेख में स्थल के बारे मे संक्षिप्त में जानकारी देते हुये स्थल के निर्मांण काल के बारे में यह दर्शाया गया है कि- ” संभावित तिथि 12वीं 13वीं शताब्दी ईस्वी स्वीकार की जाती है ” |

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जब आगंतुक थोडा आगे जाकर मलमा सफाई से मिले मंदिरों के भग्नावशेष समूह में पंहुचते हैं तो वंहा पर छत्तीसगढ राज्य सरकार के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा लगवाये गये जन सूचना फलक (बोर्ड) को देखते और उस पर ईंटो के टीलों में अनावृत्त ध्वस्त प्राचीन ईंट निर्मित मंदिर गढधनौरा शिर्षक से लिखी हुई जानकारी पढते हैं तो उसमे यह पढने को मिलता है कि – ” यंहा की सभी संरचनायें ईंट निर्मित हैं तथा उनके निर्मांण के संबध में अनुमान है कि उनका निर्मांण 5वीं से लेकर 7वीं शदी ईस्वी के मध्य नल वंशीय राजाओं के राजत्वकाल में हुआ है “|

बडे टिले पर भारतीय सर्वेक्षण अधीक्षण पुरातत्वविद के शिलालेख में 12वीं-13वीं शदी और छत्तीसगढ शासन के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के बोर्ड मे 5वीं से 7वीं शदी बताना लोगों को भ्रम में डाल देता है ।

इस संबध में बस्तर के प्रतिष्ठित इतिहासकार और इतिहास के प्रोफेसर का कहना है कि – ” ये शिवलिंग नल काल के ही है। बस्तर में नल 375 ईसवी व्याघ्र राज से लेकर 760 ईसवी विलासतुंग तक रहे उसके बाद ओडिसा चले गए। केशकाल के शिवलिंग 500 ईसवी 600 ईस्वी के मध्य होने चाहिए। उससे पूर्व के हो सकते हैं किंतु बाद के नही। बारहवीं सदी लिखना समझ से परे है। इसमें सुधार होना चाहिए ” |

मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम के वनवास काल के रामवन गमन की स्मृति व पौराणिंक काल की कथा और विभिन्न किवदंतियो को तथा नल वंश – नाग वंश के अतिप्राचिन इतिहास को आत्मसात करके रखने वाला यह स्थल इतिहासकारों पुरातत्ववेत्ताओं को शोध एवं खोज के लिये आमंत्रित करता है ।

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केंद्र एवं राज्य के पुरातत्व विभाग को इतिहासकारों पुरातत्ववेत्ताओं की जानकारी के आधार पर यंहा के निर्मांणकाल के बारे में समतुल्य जानकारी दिया जाना चाहिये ताकि आगंतुक पृथक पृथक जानकारी से भ्रमित होकर संशय में न पडें ।